क्षणिकाएँ
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गुलाब की नन्हीं कली
तोड़, तुम्हारे बालों में
सजा दी
उँगली में चुभा काँटा
रहा याद दिलाता
कि तुम चली गई …
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कैक्टस कठोर
काँटों से भरा, बदसूरत
निकली कली
कोमल / अपूर्व सुन्दरी॥
दन्तैल भयावह राक्षस की
सपना बिटिया।
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मुद्दत बाद
तुम्हारे शहर आना हुआ
धड़कते दिल से
मौहल्ला, गली, मकान
खोज डाला / सब कुछ
वही था।
जस का तस
सिर्फ़ तुम थे गुम
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पावस-साँझ ।
आकाश में
इन्द्र धनु उग आया
मन भरमाया
ख़यालों में लहराया
तेरा / बहुरंगी आँचल ।
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सीप के अधर खुले
कोई / स्वाति- बूँद
आ गिरे
मोती बन… उगे ।
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अभी भोर थी
दस्तक पड़ी
खोला जो द्वार
हर्ष का न रहा
पारावार,
वसन्त खड़ा था ।
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नहा-धोकर
ऊषा ने खोले
पावन द्वार
निराले पंछी
मधुर स्वरों में
गाते गुरबानी ।
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तुम्हें विदा दे
ज्यों ही मुड़ी, देहरी के पार
एक साथ यादें करने लगीं
कदम ताल-------
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आज के नाते-रिश्ते
बोझ –केवल बोझ
गरमाई
बरसों पुरानी भरी
ठण्डी बोसीदा रज़ाई ।
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हज़ारों
नन्हें-नन्हें पुरज़े
लिख मारे
प्रेम -मतवारे वसन्त ने
धरती के नाम
अब /इधर –उधर
हवा में
उड़ते फिर रहे हैं।
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सपनों ने लुभाया
तो चट्टानों से टकराया
आशा ने बुलाया-
बियाबान में ला पटका
मासूम बेचारा दिल ।
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धूल से अँटा
मैला- सा एक दिन
खुल पड़ा / अनायास
मन का भण्डार
वहाँ भी भरा था
यादों का गर्द-गुबार ।
-डॉ. सुधा गुप्ता
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-01-2018) को "कुहरा चारों ओर" (चर्चा अंक-2846) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हर्षोंल्लास के पर्व लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर
जवाब देंहटाएंमनोरम झलकियाँ !
जवाब देंहटाएंBahut sunder ....
जवाब देंहटाएंman ko moh leti rachna...bahut shandar